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भागलपुर : जब देशभर में मजदूर दिवस पर छुट्टी का आनंद लिया जा रहा था, सरकारी दफ्तर बंद थे, सभाएं और भाषण हो रहे थे — उसी वक्त भागलपुर के चौक-चौराहों पर दिहाड़ी मजदूर रोज़ की तरह काम की आस में खड़े नज़र आए।

इन मजदूरों के चेहरों पर ना कोई उत्सव था, ना ही किसी कार्यक्रम की उत्सुकता। उनका साफ कहना था, “मजदूर दिवस से हमें क्या लेना? अगर एक दिन भी काम नहीं किया, तो चूल्हा नहीं जलेगा।”

गांवों से रोज़ शहर आने वाले ये मजदूर बिना किसी सरकारी गारंटी के मेहनत की तलाश में भटकते हैं। इनमें से कईयों को काम नहीं मिलता, तो कुछ आधी मज़दूरी में भी राज़ी हो जाते हैं।

एक मजदूर ने कहा, “सरकारें आती हैं, नीतियाँ बनती हैं, लेकिन हम तक ना तो सरकारी योजनाएं पहुँचती हैं और ना ही कोई सहारा मिलता है। छुट्टी का मतलब हमसे मत पूछिए, हम तो बस बच्चों के लिए रोटी का इंतज़ाम करना चाहते हैं।”

यह दृश्य मजदूर दिवस की वास्तविकता पर सवाल खड़े करता है। क्या यह दिन केवल औपचारिकता बनकर रह गया है? क्या यह सिर्फ सभागारों में भाषण और मीडिया की हेडलाइन तक सिमट कर रह गया?

जब तक इन असली मजदूरों की ज़िंदगी में ठोस बदलाव नहीं आएंगे, तब तक मजदूर दिवस केवल एक तारीख बनकर रह जाएगा — ना कि उनके सम्मान का प्रतीक।

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